Monday 31 October 2011

उस अजनबी के लिए जिस से मेरा रिश्ता अज़ल से है... aadil rasheed

उस अजनबी के लिए जिस से मेरा रिश्ता अज़ल से है...

हिन्दोस्तान मे जो चन्द शहर हैं जहाँ शायरी सुनी जाती है उनमे अलीगढ  की अपनी अलग हैसियत है.
अलीगढ़ मे मुशायरा पढना अपने आप मे एक ख़ुशी की बात है वहां ज़बान को समझने वाले लोग रहते हैं शेर को उसकी रूह तक जाकर समझते हैं और उस लफ्ज़ तक की दाद देते हैं जिस एक लफ्ज़ की वजह से वो शेर शेर होता है  मैं तो कहता हूँ के वहां निशस्त पढना किसी ऐसी जगह के मुशायरा पढने से लाख बेहतर है जहाँ शेर न सुने जाते हों बल्के मुशायरा देखा जाता हो.
मुशायरा पढने के बाद हमें न चाहते हुए कार उसी रस्ते पर डालनी पड़ी जिस से गए थे.
अलीगढ से बुलंद शेहर तक का जो रास्ता है  वो फिलहाल  हिंदुस्तान की रूह की तरह ज़ख़्मी है ऐसे ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर कार से तेज़ तो साइकिल चलती है धूल इतनी के उस से जियादा तो कोहरे मे दिखाई देता है.
बार बार मुजीब साहेब की यही बात याद आ रही थी "आदिल भाई बाई रोड मत आना" अब बग़ैर नुकसान उठाये किसी ने किसी की मानी है आज तक  जो हम मानते हम भी गए बाई रोड ही.

हम गए तो बाया हापुड़ थे लेकिन अचानक ख्याल आया के बुलंदशहर से सिकंदरबाद होते हुए जल्दी देहली पहुँच जायेगे और उधर रास्ता भी बेहतर है.सिकंदराबाद मे सारे ट्रक और बस एक लाइन मे खड़े थे पता किया क्यूँ  भाई ये जाम कैसा जवाब मिला झांकियां  निकल रही हैं चोराहे पर हमारा ड्राइवर बहुत होशियार था(कुछ ज़रुरत से जियादा ही) गाडी को आगे बढाता गया बढाता गया बढ़ता गया और वहां तक बढाता गया जहाँ से अब गाडी वापस भी नहीं आ सकती थी मतलब न इधर के रहे न उधर के.
नश्तर ने मुझ से कहा के अल्लाह जाने  कहाँ तक जाम है सरकारी नौकरी की यही परेशानी है अब वक़्त पर कैसे पहुंचेंगे मैं ने हंस कर कहा दोस्ती बड़ी चीज़ है या नौकरी जवाब आया उबैस भाई और मुजीब भाई से मशवरा करके बताऊंगा(वो दोनों भी सरकारी मुलाजिम हैं )
फिर मैं गाडी से उतर कर बहुत दूर तक देखने गया जहाँ चौराहे पर झांकी निकल रही थी चौराहे पर जा कर देखा वहां चौराहे पर झांकी निकल कहाँ रही थी वो तो रक्खी थी (क्यूँ के अगर निकल रही होती तो अब तक निकल गयी होती) चौराहे पर जाम के कारण उधर की  गाड़ियाँ उधर इधर की इधर थीं  प्रशाशन गूंगा देख रहा था जब के इसको हेंडल किया जा सकता था लेकिन  नहीं किस की मजाल के उस जन सैलाब के सामने अपने अधिकारों का प्रयोग करे 
मैं ने देखा के एक अम्बुलेंस भी फँसी है उस मे एक मरीज़ ऑक्सीज़न लगा हुआ लेटा है और उसके रिश्तेदार गुमसुम हैं (शायद रोते रोते थक गए होंगे) उनको देहली AIIMS पहुंचना है उन्होंने बताया के उन्होंने बहुत फरियाद की के मरीज़ है इस गाडी को किस भी तरह निकल जाने दो मगर किसी ने हमारी मदद नहीं की  मैं एक अधिकारी के पास गया और उन से कहा के आप जाम खुलवाते क्यूँ नहीं जवाब वही जो मुझे पहले से पता था "धार्मिक मामला है हम जियादा ज़बरदस्ती नहीं कर सकते कुछ भी हो सकता है " 
मैं वापस आया और और नश्तर को सारी बात बताई फैसला किया गाडी यही छोडो किसी तरह वापस बुलंद शहर जाकर वहां से बाया हापुड़ चला जाए और फिर अचानक एक अजीब सी गाडी शायद "जुगाड़" वहां आई और उस ने आवाज़ लगानी शुरू की बुलंदशहर बुलंदशहर बुलंदशहर 
मुझे तो वो कोई अल्लाह का भेजा फ़रिश्ता नज़र आया मेरा एक शेर भी है जो में ने ऐसे ही किसी परेशानी के मौके पर किसी के मेरी मदद करने के बाद कहा था 
हमें अपने मसाइल का जो कोई हल नहीं मिलता 
बशक्ले आदमी वो इक फ़रिश्ता भेज देता है (आदिल रशीद 2001)
फिर उस जुगाड़ से बुलंदशहर तक और बुलंदशहर से बस से बाया हापुड़ देहली का सफ़र किया.उसी वक़्त किसी का भोपाल से SMS आया "लौट के बुद्धू घर को आये" और कोई वक़्त होता तो मैं बहत देर हँसता इस SMS पर लेकिन नहीं हंस सका मेरे दिमाग में तो वो मरीज़ और अमबुलंस घूम रही थी क्या हुआ होगा उसका क्या वो बचा होगा क्या उसके पास इतनी आक्सीजन थी क्यूँ के  जाम क्या पता कब खुला होगा क्या इतना समय दिया होगा ज़िन्दगी ने उस को. मेरी निगाह में मौत हमें जितनी मोहलत देती है उतने ही वक़्त को ही हम ज़िन्दगी कहते हैं .
मेरे दमाग में एक बात आती है के कोई भी धार्मिक या सियासी जुलूस निकालते वक़्त (यहाँ किसी विशेष धर्म की तरफ इशारा नहीं इसमें इस्लामी जुलूस भी हैं वो भी यही करते हैं) हम इंसानियत को क्यूँ भूल जाते हैं क्या हमें कोई भी धर्म इंसानियत को ज़ख़्मी करने की इजाज़त देता है क्या इस तरह के जुलूस धरने प्रदर्शन जो ज़िन्दगी को अस्त व्यस्त कर देते हैं  उस से इश्वर खुदा जो के एक ही के अलग अलग नाम हैं क्या वो खुश  होता है. 
रास्ते भर मैं उस अजनबी के लिए खुदा से दुआ करता रहा के खुदा उस अजनबी को इतनी साँसे और दे दे के वो अस्पताल पहुँच जाए क्युनके अगर वो अस्पताल नहीं पहुँच सका तो उसके रिश्ते दार सारी ज़िन्दगी यही सोच कर उन लोगों (जाम लगाने वालों)को मुआफ नहीं कर पायेंगे के काश जाम न होता और वो  वक़्त से अस्पताल पहुँच गए होते तो मरीज़ बच गया होता.......आदिल रशीद

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