रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
मैंने अपनी ये ग़ज़ल 15 अगस्त,1989 की रात को नगर पालिका तिलहर में एक काव्य गोष्टी में इसका पाठ किया तो अध्यक्षता कर रहे तत्कालीन एस डी एम साहेब ने इस के निम्न लिखित शेर
इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है
पर 50 रूपये पुरस्कार के रूप में दिए , जो मेरे जीवन में एक अमूल्य पुरस्कार और सम्मान है बाद में कुछ हिंदी कवियों ने मेरे सम्मान में एक कार्यक्रम रखा और एक शाल भेट की तो कई आदरणीय बुज़ुर्ग उर्दू शायरों ने उस कार्यक्रम का बहिष्कार किया
ग़ज़ल
रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
सरहद की सुरक्षा का अब फ़र्ज़ तुम्हारा है
हमला हो जो दुश्मन का हम जायेगे सरहद पर
जाँ देंगे वतन पर ये अरमान हमारा है
इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है
ये कह के हुमायूं को भिजवाई थी इक राखी
मजहब हो कोई लेकिन तू भाई हमारा है
अब चाँद भले काफिर कह दें ये जहाँ वाले
जिसे कहते हैं मानवता वो धर्म हमारा है
आदिल रशीद
[नोट ;शुरू में मेरी रचनाएं चाँद तिलहरी एव चाँद मंसूरी के नाम से प्रकाशित हुई है]
इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है
पर 50 रूपये पुरस्कार के रूप में दिए , जो मेरे जीवन में एक अमूल्य पुरस्कार और सम्मान है बाद में कुछ हिंदी कवियों ने मेरे सम्मान में एक कार्यक्रम रखा और एक शाल भेट की तो कई आदरणीय बुज़ुर्ग उर्दू शायरों ने उस कार्यक्रम का बहिष्कार किया
ग़ज़ल
रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
सरहद की सुरक्षा का अब फ़र्ज़ तुम्हारा है
हमला हो जो दुश्मन का हम जायेगे सरहद पर
जाँ देंगे वतन पर ये अरमान हमारा है
इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है
ये कह के हुमायूं को भिजवाई थी इक राखी
मजहब हो कोई लेकिन तू भाई हमारा है
अब चाँद भले काफिर कह दें ये जहाँ वाले
जिसे कहते हैं मानवता वो धर्म हमारा है
आदिल रशीद
[नोट ;शुरू में मेरी रचनाएं चाँद तिलहरी एव चाँद मंसूरी के नाम से प्रकाशित हुई है]
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